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छोटी सोच कविता

 सागर से बाहर निकल मेंढक

इत्तफाक से फुदकते फुदकते कुएं में आ गया

आते ही नयी जगह देख घबरा गया 

थोड़ी देर बाद

सचेत हों उसने 

आस पास नजर दौड़ाई 

सागर में पले बड़े 

लम्बे प्रवास कि याद आईं 

तभी उसे कूप मडूक नजर आया 

नव आगंतुक को देख मुस्कुराया 

बोला धीर गंभीर हो हुजूर कहां से पधारें 

डर किस बात का अपनी जात के यहां

हे बहुत सारे 

बिऩमता से सागर का मेंढक बोला 

महोदय सागर से हूं आ रहा हूं

आप से मिल प्रसन्नात्मा पा रहा हूं 

तब कूप मनडूक ने अपना प्रश्न दागा 

तुम्हारा सागर कितना बड़ा है

ज़वाब मिला 

बहुत बड़ा है 

यह सुनते ही कूप मनडूक के

ओंठो पर मुस्कान आ गई 

कुएं में तब नन्ही सी छलांग लगाई 

और बोला इतना ही गहरा सागर होंगा भाई 

ज़वाब मिला इससे बहुत बड़ा है मेरे भाई 

तब कूप मनडूक ने पहले से लम्बी छलांग लगाई 

उत्तर वहीं पा कूप मनडूक एकदम बोखलाहट

घमंड के साथ कुएं का पूरा व्यास लांघ गया 

अब बोलो तुम्हारा सागर इतना हैं बढ़ा 

हां भाई इससे भी बड़ा है 

तब कूप मनडूक एकदम अकड़ गये

दादा बनकर बोलें 

इतने बड़े झूठे तुम कहां से आ गयै 

इससे बड़ा सागर क्या कहीं नहीं कभी नहीं 

हों सकता 

यह देख सागर का मेंढक 

कूप मनडूक के अधूरे गयान

को देख मन ही मन माफ कर उसे

और कुएं को देखता रह गया ।।






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