ये काले ग़ुलाब

तेरा पौधा कहां है ।

पत्तियां झाड़ियों में हैं

कि नहीं कौन बताएगा ।
तेरे संघर्ष का तेरे त्याग का
पुरस्कार बना परमात्म का
एक लाल रंग से रंगा
अनेकों पंखुड़ियों कि जतन से
एक ऊपर से
गाता सा
इठलाता सा
मुस्कुराता फूल नजर आया ।
ओ ग़ुलाब के फूल
तुमने हां तुमने
जाने कितनी बातें
जाने कितनी शिकायतें
हमारे हमारे मन कि सुनी
जिन बातों को मेरे दोस्त भी नहीं
मेरे अपने भी नहीं
हमारे हम राज भी नहीं
सुन सके ,पर तुमने सुनीं
फिर मेरी अनगढ़ सी
अटपटी सी , बातों पर
शिकायतों पर विचार किया ।
मौन हो गम्भीर हों
मुझे था समझा दिया ।
कहा था उनमें कहना
यदि पूछें कभी
कि कुछ नहीं बोला
हमें देख हंसा
फिर शर्मा दिया ।
ओ ग़ुलाब के फूल
कारण बता समझायो
तब बोला था
जाने कितने एहसान
से में दबा हूं
इससे परमेश्वर से बुराई है
अपने आप से लड़ाई
स्वामी को चाहिए
सेवक करें बड़ाई
तब मैंने कहा था
घबराओ नहीं
हमारी उनसे बात
दिन में कभी सुनी हैं रात
हमें तों वे दर्शन भी नहीं देते ।
हम है कभी भी जबरदस्त दर्शन
कर लेते ।
सारे दुनिया से जानें
क्या क्या कह लेते ।
यह सुन फूल एकदम हंसा
संकोच मिटा खिल उठा
फिर बोला तब हमारी तुम्हारी काफी चलेंगी
मुझे तुम से तुम्हें मुझ से
मुक संवेदना चाहें जब मिलेंगी ।।
ग़ुलाब का फूल बोला
देखो हम तुम्हें बताते हैं
कल का भरोसा नहीं
जाने कौन कब किसके लिए तोड़ देगा
और घोषणा कर देगा
कोइ सुन्दर सा सुहावना सा
मनभावना बहाना बना कर
कि तुम्हरा
आना सार्थक था
क्यों कि कभी देश कि खातिर
कभी अपनों कि खातिर
किसी के गले में
या देवता के माथे पर
मुस्काते से चढ़ा दिए जाएंगे
बलिदान कर दिए जाएंगे ।
गुलाब का फूल
गम्भीर हो कर बोला
किसे फुर्सत हैं हमारे अन्दर झांकने कि
कि हमारे जन्म दाता ने
कितने कष्ट सह कर खड़ा किया था
संसार में तथा हमको ले
क्या क्या बिचारा होंगा
कितने अरमानों को सजाया होंगा
पर शिकायत हैं
कि जग हमारे बलिदान को
चर्चा का विषय बना
हमारे साथ हमारी
अन्तर आत्मा को
दफना देगा ।
गुलाब का फूल बोला
हम जग कि चालों को
समझते हैं
इसलिए अंहकार हीन बनें
चाहे जहां खिलते हैं ।
खिलकर टूटने के लिए
टूटकर सोभा बनने के लिए
सौभा बन मुरझाने के लिए
तैयार रहते हैं ।
वर्तमान को सब कुछ समझ
चाहे जिसके सामने
बिन भेदभाव के मुस्कुरा
लेते हैं अपने रूप से सभी को
लुभा लेते हैं ।
कितने का ईमान डीगा लेते हैं
कितनों को जो मेरी
मूक भाषा समझ लें ते है
उन्हें समझा देते हैं ।
गुलाब का फूल बोला
अनेकों बार हमें लेकर आपस में झगड़ने
लगते हैं
पर इंसान से कहता हूं
क्यों कि तुम मानव हों
शायद तुम्हें नहीं हों मालूम
कि यह झगड़
मोह या अज्ञानता से निकल कर
जाने कितने अपनों को भटका देता
बेचारे दूर मंजिल को
ताकतें तुम जैसे खड़े रहते
केवल पाषाण प्रतिमाएं के
दर्शन करते
पंडे पुजारी उसका भी समय तय कर देते
फिर दरवाजे कपाटों को बने कर देते ।
गुलाब का फूल बोला
मेरी मानिए दर्शन कि
अभिलाषा
पूरी होंगी पर समझना होगा
जान लो
और परमेश्वर को अन्तर में बसा लो
फिर जी भर मुस्कुराओ
फिर अपने ही दुश्मन के सामने
झूम झूम कर गाऔ
नफ़रत के बीजों को नष्ट कर
सब को गले लगाओ ।
मजहबों से ऊंचे उठ
इंसान बन बतायौ ।
गुलाब का फूल बोला
देखो हमारा जन्म दाता पोधा
गमले में हैं पर
दीवार कि आड़ पा कर नजर नहीं आया
इसके सृजन रुप से में उपर आया
तब अपने जन्मदाता कि छवि
के दर्शन सभी को कराएं ।।
गुलाब का फूल अंत में बोला
जाओ , कहीं वे न देख लें
नहीं तो मैं उन्हें कैसे बताऊंगा
कि में उन्हीं का हूं
मुझे तो प्यार से
दूलार से
सब के पास जाना है
तुम्हारे संदेश भी तों पहुंचाना है
यह कह मौन हो गया
मृद गुलाब का फूल ।।
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One thought on “” काला गुलाब “भाग एक”
  1. यह कविता गुलाब के निराकार साकार रूप का वर्णन करती है जो तटस्थ भाव से सभी के गले में खिलखिला मुस्कुराते हुए मुरझा कर प्रभु को याद करते हुए संसार से विदा ले लेता है ।

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